भारती स्वतंत्रता संग्राम साहस देशभक्ती मित्रता के प्रतीक आजाद चंद्रशेखर आजाद क्रांती का नाम था आजाद चंद्रशेखर उनके जयंती के अवसर पर उनके कार्य का योगदान भारतीय सनातन धर्म समाजसेवी प्रशांत कुमार शिरसागर याद किया नमन किया नमन किया गया
भारती स्वतंत्रता संग्राम साहस देशभक्ती मित्रता के प्रतीक आजाद चंद्रशेखर आजाद क्रांती का नाम था आजाद चंद्रशेखर उनके जयंती के अवसर पर उनके कार्य का योगदान भारतीय सनातन धर्म समाजसेवी प्रशांत कुमार शिरसागर याद किया नमन किया नमन किया गया
शहीद पंडित चंद्रशेखर आजाद 23 जुलै 19 ० ६ क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद की प्रतिमा वन वन नाईन वर्ष शहीद उद्यान पार्क मे स्थित प्रतिमा अल्फ्रेड पार्क शहीद उद्यान पार्क प्रयागराज मे स्थित प्रतिमा क्रांतिकारी शहीद चंद्रशेखर आजाद समाजसेवी सनातननी देशभक्त प्रशांत कुमार शिरसागर सहपरिवार प्रतिमा मे फुल माला चंदन तिलक कर याद नमन किया गया भारतीय स्वतंत्र संग्राम के महान क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद के जीवनी पर प्रकाश डाला आझाद भारत के लिए युवा की सोच भारत आजाद करने के लिए कार्य संघर्ष जीवन के बारे मे जानकारी दी है उनके प्रतिमा के पास दोसो वर्ष पुराना परी जात का पेड है आस्था का केंद्रबिंदू है सुख समृद्धी कामना करते है सन 27 फरवरी उन्नीसो 31 के दिन अंग्रेजो से लढते हुए संत चा संग्राम की क्रांतिकारी शहीद पंडित चंद्रशेखर आजाद अपने प्राणो को न्योछावर कर दिया उनकी आयु 24 वर्ष की थी ये सच्चे भारतीय देशभक्त थे
चन्द्रशेखर आज़ाद जयंती : आज ही के दिन चंद्रशेखर तिवारी का हुआ था जन्म, जो इस तरह बने 'आजाद' - शेर दिल चंद्रशेखर आजाद आज भी हर भारतीय के दिलों में बसते हैं. 'दुश्मन की गोलियों का करेंगे सामना, आजाद ही रहे हैं, आजाद रहेंगे', ये नारा दिलों में भारत माता के लिए प्रेम और जोश को जगा देता है. 23 जुलाई उसी जोशीले चंद्रशेखर आजाद की जयंती है.भारत मां के वीर सपूत चंद्रशेखर तिवारी जो बाद में आजाद के उप नाम से देशवासियों के दिलों पर राज करने लगे, उनका जन्म 23 जुलाई, 1906 को मध्य प्रदेश के अलीराजपुर जिले के भाबरा गांव (अब चंद्रशेखर आजाद नगर) में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था. उसके बाद बेहद कम उम्र में ही उन्होंने अपने परिजनों को अपने देश प्रेम की भावना के बारे में बता दिया था. देश की आजादी के यज्ञ में मात्र 24 साल में अपनी प्राणों की आहुति देने वाले आजाद की 2 ख्वाहिशें थीं, जो कभी पूरी न हो सकीं. उनकी सबसे बड़ी ख्वाहिश देश की आजादी की तो पूरी हुई, लेकिन उनके जीते-जी नहींआजाद की पहली ख्वाहिश
कहते हैं कि देश को आजाद कराने के लिए चंद्रशेखर रूस जाकर स्टालिन से मिलना चाहते थे. उन्होंने अपने जानने वालों से यह बात कही भी थी कि खुद स्टालिन ने उन्हें बुलाया है. लेकिन रूस की यात्रा के लिए 1200 रुपये की जरूरत थी, जो उनके पास नहीं थे. उस समय 1200 रुपये बड़ी रकम हुआ करती थी. वह इन रुपयों का इंतजाम कर पाते, उसके पहले ही शहीद हो गए.
दूसरी इच्छा थी भगत सिंह से जुड़ी
चंद्रशेखर आजाद की दूसरी ख्वाहिश थी अपने साथी क्रांतिकारी भगत सिंह को फांसी से बचाना. इसके लिए उन्होंने हर संभव कोशिश की और बहुत लोगों से मिले भी, लेकिन उनकी शहादत के एक महीने के भीतर ही उनके साथी भगत सिंह को भी फांसी दे दी गई.
यारों के यार थे आजाद
चंद्रशेखर आजाद दोस्तों पर जान भी न्योछावर करने को तैयार रहते थे. उनके एक दोस्त का परिवार उन दिनों आर्थिक तंगी से गुजर रहा था. जब यह बात चंद्रशेखर को पता चली तो वह पुलिस के सामने सरेंडर को तैयार हो गए ताकि उनके ऊपर रखी गई इनाम की राशि दोस्त को मिल सके और उनका गुजर-बसर सही से हो सके।
वीडिआज ही के दिन चंद्रशेखर तिवारी का हुआ था जन्म, जो इस तरह बने 'आजाद' - History of July 23
History of July 23: शेर दिल चंद्रशेखर आजाद आज भी हर भारतीय के दिलों में बसते हैं. 'दुश्मन की गोलियों का करेंगे सामना, आजाद ही रहे हैं, आजाद रहेंगे', ये नारा दिलों में भारत माता के लिए प्रेम और जोश को जगा देता है. 23 जुलाई उसी जोशीले चंद्रशेखर आजाद की जयंती है.
चंद्रशेखर आजाद का जन्मदिन
23/7/1906 भारत मां के वीर सपूत चंद्रशेखर तिवारी जो बाद में आजाद के उप नाम से देशवासियों के दिलों पर राज करने लगे, उनका जन्म 23 जुलाई, 1906 को मध्य प्रदेश के अलीराजपुर जिले के भाबरा गांव (अब चंद्रशेखर आजाद नगर) में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था. उसके बाद बेहद कम उम्र में ही उन्होंने अपने परिजनों को अपने देश प्रेम की भावना के बारे में बता दिया था. देश की आजादी के यज्ञ में मात्र 24 साल में अपनी प्राणों की आहुति देने वाले आजाद की 2 ख्वाहिशें थीं, जो कभी पूरी न हो सकीं. उनकी सबसे बड़ी ख्वाहिश देश की आजादी की तो पूरी हुई, लेकिन उनके जीते-जी नहीं. ( Chandrashekhar Azad birth anniversary )
आजाद की पहली ख्वाहिश
कहते हैं कि देश को आजाद कराने के लिए चंद्रशेखर रूस जाकर स्टालिन से मिलना चाहते थे. उन्होंने अपने जानने वालों से यह बात कही भी थी कि खुद स्टालिन ने उन्हें बुलाया है. लेकिन रूस की यात्रा के लिए 1200 रुपये की जरूरत थी, जो उनके पास नहीं थे. उस समय 1200 रुपये बड़ी रकम हुआ करती थी. वह इन रुपयों का इंतजाम कर पाते, उसके पहले ही शहीद हो गए.
दूसरी इच्छा थी भगत सिंह से जुड़ी
चंद्रशेखर आजाद की दूसरी ख्वाहिश थी अपने साथी क्रांतिकारी भगत सिंह को फांसी से बचाना. इसके लिए उन्होंने हर संभव कोशिश की और बहुत लोगों से मिले भी, लेकिन उनकी शहादत के एक महीने के भीतर ही उनके साथी भगत सिंह को भी फांसी दे दी गई.
यारों के यार थे आजाद
चंद्रशेखर आजाद दोस्तों पर जान भी न्योछावर करने को तैयार रहते थे. उनके एक दोस्त का परिवार उन दिनों आर्थिक तंगी से गुजर रहा था. जब यह बात चंद्रशेखर को पता चली तो वह पुलिस के सामने सरेंडर को तैयार हो गए ताकि उनके ऊपर रखी गई इनाम की राशि दोस्त को मिल सके और उनका गुजर-बसर सही से हो सके.
आज का इतिहास : हाथ में गीता लेकर फांसी के फंदे पर झूल गए खुदीराम बोस
चंद्रशेखर तिवारी वाराणसी में बने 'आजाद'
बात साल 1921 की है जब जलियावाला बाग की घटना देशवासियों के अंदर जबरदस्त आक्रोश भर दिया था. गांधी जी ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ असहयोग आंदोलन छेड़ दिया था. क्रांतिकारियों के गढ़ बनारस में छात्रों का एक गुट विदेशी कपड़ों की दुकान के बाहर प्रदर्शन कर रहा था. तभी वहां पहुंची पुलिस ने छात्रों पर लाठीचार्ज कर दिया. लहूलुहान साथियों को देख एक 15 साल के बालक का खून खौल उठा और आव न देखा ताव दे मारा एक दारोगा के सिर पर पत्थर.
ये बालक कोई और नहीं आजाद ही थे. आजाद पकड़े गए और उन्हें मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया, तो उन्होंने अपने परिचय में मां का नाम धरती, पिता का नाम स्वतंत्रता और घर जेल बताया था. मजिस्ट्रेट ने उन्हें 15 कोड़े मारने की सजा सुनाई. जेल से बाहर आने के बाद उनकी बहादुरी के चर्चे पूरे बनारस में थे. इसी के बाद बनारस के ज्ञानवापी में हुई एक सभा में चंद्रशेखर तिवारी का नामकरण चंद्रशेखर आजाद किया गया.
आजाद ने कहा था 'नहीं आऊंगा जिंदा हाथ'
आजाद की अंतिम मुठभेड़ के बारे में सर्वविदित है कि एक बार स्वतंत्रता सेनानियों की बैठक में उन्होंने कहा था कि अंग्रेज कभी मुझे जिंदा नहीं पकड़ सकते हैं. हुआ भी ऐसा ही जब तत्कालीन इलाहाबाद (अब प्रयागराज) के अल्फ्रेड पार्क में उन्हें अंग्रेजों ने 27 फरवरी 1931 को घेरा तो आजाद ने पहले जमकर मुकाबला किया. लेकिन जब आजाद के पास आखिरी गोली बची, तो उन्होंने अपनी कनपटी पर पिस्तौल से गोली चला दी और वीरगति को प्राप्त हुए.
यहां से आजाद ने बच्चे बच्चे के अंदर आजादी का वो बीज बोया जिसे अंग्रेज कभी जीते जी दबा नहीं सकते थे. आजाद की बातें और उनका खुद को शहीद कर देना ही उनके आजादी पसंद होने का प्रमाण था. आजाद का खौफ अंग्रेजों में इस कदर था कि जब आजाद मृत पड़े थे तब भी अंग्रेज उनके पास जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे. जब उन्होंने तसल्ली कर ली कि वो मृत हो चुके हैं तब अंग्रेज उनके पास गए.