थदिड़ी पर्व सिंधी समाज की महिलाओं ने शीतला माता की पूजा अर्चना करके मनाया
बिलासपुर के विभिन्न क्षेत्रों में सिंधी समाज द्वारा सामूहिक रूप से थदिडी पर्व मनाया जिसमे शनिचरी, विनोबा नगर, विद्या नगर , सिंधी कॉलोनी मे विशेष आयोजन रहा थदिड़ी शब्द का सिन्धी भाषा में अर्थ होता है ठंडी, शीतल...। रक्षाबंधन के आठवें दिन इस पर्व को समूचा सिंधी समुदाय। हर्षोल्लास से मनाता है।
आज से हजारों वर्ष पूर्व मुअनि जो दड़ो की खुदाई में मां शीतला देवी की प्रतिमा निकली थी। ऐसी मान्यता है कि उन्हीं की आराधना में यह पर्व मनाया जाता है। थदिड़ी पर्व को लेकर तरह-तरह की भ्रांतियां भी व्याप्त हैं। कहते हैं कि पहले जब समाज में तरह-तरह के अंधविश्वास फैले थे तब प्राकृतिक घटनाओं को दैवीय प्रकोप माना जाता था।
जैसे समुद्रीय तूफानों को जल देवता का प्रकोप, सूखाग्रस्त क्षेत्रों में इंद्र देवता की नाराजगी समझा जाता था। इसी तरह जब किसी को माता (चेचक) निकलती थी तो उसे दैवीय प्रकोप से जोड़ा जाता था, तब देवी को प्रसन्न करने हेतु उसकी स्तुति की जाती थी और थदिड़ी पर्व मनाकर ठंडा खाना खाया जाता था। इस त्यौहार के एक दिन पहले हर सिन्धी परिवार में तरह-तरह के व्यंजन बनाए जाते हैं। जैसे कूपड़ ॻचु कोकी सूखी तली हुई सब्जियां भिंडी, करेला, आलू, रायता, दही-बड़े, मक्खन आदि। आटे में मोयन डालकर शक्कर की चाशनी से आटा गूंथकर कूपड़ बनाए जाते हैं। मैदे में मोयन और पिसी इलायची व पिसी शक्कर डालकर ॻचु का आटा गूंथा जाता है। अब मनचाहे आकार में तलकर ॻचु तैयार किए जाते हैं।
रात को सोने से पूर्व चूल्हे पर जल छिड़क कर हाथ जोड़कर पूजा की जाती है। इस तरह चूल्हा ठंडा किया जाता है।दूसरे दिन पूरा दिन घरों में चूल्हा नहीं जलता है एवं एक दिन पहले बनाया ठंडा खाना ही खाया जाता है। इसके पहले परिवार के सभी सदस्य किसी नदी, नहर, कुएं या बावड़ी पर इकट्ठे होते हैं वहां मां शीतला देवी की विधिवत पूजा की जाती है। इसके बाद बड़ों से आशीर्वाद लेकर प्रसाद ग्रहण किया जाता है। बदलते दौर में जहां शहरों में सीमित साधन व सीमित स्थान हो गए हैं। ऐसे में पूजा का स्वरूप भी बदल गया है।अब कुएं, बावड़ी व नदियां अपना अस्तित्व लगभग खो बैठे हैं। अतएव आजकल घरों में ही पानी के स्रोत जहां पर होते हैं वहां पूजा की जाती है। इस पूजा में घर के छोटे बच्चों को विशेष रूप से शामिल किया जाता है और मां का स्तुति गान कर उनके लिए दुआ मांगी जाती है कि वे शीतल रहें व माता के प्रकोप से बचे रहें। इस दौरान ये पंक्तियां गाई जाती हैं
ठार माता ठार पहिंजे ॿचड़नि खे ठार
माता अॻे बि ठारियो थई हाणे बि ठार
इसका तात्पर्य यह है कि हे माता ! मेरे बच्चों को शीतलता देना। आपने पहले भी ऐसा किया है आगे भी ऐसा करना...। इस दिन घर के बड़े बुजुर्ग सदस्यों द्वारा घर के सभी छोटे सदस्यों को भेंट स्वरूप कुछ न कुछ दिया जाता है जिसे खर्ची कहते हैं। थदिड़ी पर्व के दिन बहिन और बेटियों को विशेषकर मायके बुलाकर इस त्यौहार में शामिल किया जाता है। इसके साथ ही उसके ससुराल में भी भाई या छोटे सदस्य द्वारा सभी व्यंजन और फल भेंट स्वरूप भेजे जाते हैं इसे 'थदिड़ी का ॾिणु' कहा जाता है। इस तरह सिन्धी समाज द्वारा मनाये जाने वाले 'थदिड़ी पर्व' के कुछ रोचक और विशिष्ट पहलुओं को प्रस्तुत किया है। परंपराएं और आस्था अपनी जगह कायम रहती हैं बस समय-समय पर इसे मनाने का स्वरूप बदल जाता है। यह भी सच है कि त्यौहार मनाने से हम अपनी जड़ों से जुड़े रहते हैं व सामाजिकता भी कायम रहती है।
हालांकि आज विज्ञान ने इतनी तरक्की कर ली है कि माता (चेचक) के इंजेक्शन बचपन में ही लग जाते हैं। परंतु दैवीय शक्ति से जुड़ा 'थदिड़ी पर्व' हजारों साल बाद भी सिन्धी समाज का प्रमुख त्यौहार माना जाता है। इसे आज भी पारंपरिक तरीके से मिलजुल कर मनाया जाता है। आस्था के प्रतीक यह त्यौहार समाज में अपनी विशिष्टता से अपनी उपस्थिति दर्ज कराते रहे हैं और आगे भी कराते रहेंगे।
श्री विजय दुसेजा जी की खबर